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कविता

सच कहूँ तो चुप हूँ !

प्रदीप त्रिपाठी


सब के सब...

मिले हुए हैं

नाटक के भी भीतर

एक और नाटक खेला जा रहा है

 

हमसब ...

एक साथ छले जा रहे हैं

क्रान्ति और बहिष्कार के

छद्मी आडंबरों के तलवों तले

 

अभिव्यक्ति के तमाम खतरे उठाते हुए भी

मैं आज नि:शब्द हूँ

सच कहूँ तो

चुप हूँ

कारण यह.

कि मेरे सचके भीतर भी एक और अदना सा सच है

कि

मैं बहुत कायर हूँ।


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